Home Actress Sandeepa Dhar HD Photos and Wallpapers December 2019 Sandeepa Dhar Instagram - पतझड़ हैं कुछ, हैं ना ... पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट कानों में एक बार पहन के लौटाई थी पतझड़ की वो शांख अभी तक काँप रही हैं वो शांख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो —-- गुलज़ार साहब ———- 📸 @shazzalamphotography Jewelry @sangeetaboochra available @aquamarine_jewellery Styled by @shru_birla @tejalyadav318

Sandeepa Dhar Instagram – पतझड़ हैं कुछ, हैं ना … पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट कानों में एक बार पहन के लौटाई थी पतझड़ की वो शांख अभी तक काँप रही हैं वो शांख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो —– गुलज़ार साहब ———- 📸 @shazzalamphotography Jewelry @sangeetaboochra available @aquamarine_jewellery Styled by @shru_birla @tejalyadav318

Sandeepa Dhar Instagram - पतझड़ हैं कुछ, हैं ना ... पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट कानों में एक बार पहन के लौटाई थी पतझड़ की वो शांख अभी तक काँप रही हैं वो शांख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो —-- गुलज़ार साहब ———- 📸 @shazzalamphotography Jewelry @sangeetaboochra available @aquamarine_jewellery Styled by @shru_birla @tejalyadav318

Sandeepa Dhar Instagram – पतझड़ हैं कुछ, हैं ना …
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट
कानों में एक बार पहन के लौटाई थी
पतझड़ की वो शांख अभी तक काँप रही हैं
वो शांख गिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो —– गुलज़ार साहब
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Styled by @shru_birla @tejalyadav318 | Posted on 04/Dec/2019 11:11:34

Sandeepa Dhar Instagram – किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से 
बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाकातें नहीं होती 
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर 
गुज़र जाती हैं ‘कम्प्यूटर’ के पर्दों पर 
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें…
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं.
कि जिनके ‘सैल’कभी मरते नहीं थे 
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में जो रिश्ते वो सुनती थीं वह सारे उधरे-उधरे हैं कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़ 
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते 
बहुत सी इसतलाहें हैं जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का 
अब ऊँगली ‘क्लिक’करने से अब 
झपकी गुज़रती है 
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर 
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है 
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे 
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर 
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल 
और महके हुए रुक्के 
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे 
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे ! – गुलज़ार साहब
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Sandeepa Dhar Instagram – All that Glitters is gold ✨
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